Home हिन्दी ओशो मेरी चेतना के सहयात्री हैं : डॉ. कुमार विश्वास

ओशो मेरी चेतना के सहयात्री हैं : डॉ. कुमार विश्वास

ओशो टाइम्स में प्रकाशित हुआ मेरा साक्षात्कार –

आपके लेखन, आपके जीवन, आपके सृजन पर ओशो-दर्शन का क्या प्रभाव पड़ा है?

ओशो मेरी चेतना के शरूआती सहयात्री हैं, सहयात्री मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि ओशो अनुचर स्वीकार नहीं करते, उन्हें किसी भी दर्शन, किसी भी सोच, किसी व्यक्ति, किसी प्रवृत्ति या प्रकृति के किसी भी अंग का अनुचर हो जाना बर्दाश्त नहीं है। ओशो अपनी तरह के पहले बुद्धपुरुष हैं जो किसी अनुचर के हाथ छुड़ा लेने पर उसे मुस्कुराकर विदा करते हैं। ओशो मेरे जीवन में सम्मिलित हुए ग्यारहवीं कक्षा में, जब मैंने उनकी पहली पुस्तक पढ़ी – माटी कहे कुम्हार से। उसमें लिखा था कि अपनी प्रवृत्ति या प्रकृति के विपरीत मत जाइए, क्योंकि वो ईश्वर है और उसके खिलाफ जाओगे तो वो आपको कुछ बनने नहीं देगा और ओशो ही पहले व्यक्ति है जिन्होंने मेरा इंजीनियरिंग का रास्ता भटका दिया कि मझे उस मार्ग पर नहीं जाना, मझे कवि होना है।

तो इस प्रकार ओशो मेरे जीवन में दाखिल हुए और फिर ओशो लंबे समय तक साथ चलते गये, अब भी वे कई बार साथ चलते हैं लेकिन जैसा मैंने कहा वे ये स्वीकार नहीं करते कि मेरे अनुचर बनो। नहीं तो कितने ही लोग हैं जो कहते हैं कि मेरे पीछे चलो, मुझे मानो, मैं जो कह रहा हूं वो सुनो, मैंने जो किताब लिख दी है इसकी मानो, मैंने जो देशना दी है उसको मानो, ओशो पहले हैं जो कहते हैं कि मेरी क्यों मानो, अपनी सुनो और इसके लिए वो तैयार करते हैं आपको, आपकी मानसिकता, आपका मन मस्तिष्क तैयार करते हैं!

साठ के दशक से ही ओशो ने व्यक्ति के दमित चित्त पर खूब प्रहार किया…  वे हमें मुक्ति का राज़ बता रहे थे और समाज उनका विरोध कर रहा था… क्या कभी यह समाज ओशो की देशना को समझ भी पायेगा?

समझ पायेगा नहीं बल्कि समझ रहा है, मैं जानता हूँ कि जब मैंने ओशो को पढ़ना शुरू किया 70 के दशक में तो मैं अपने परिवार और समाज में कोई आदरेय बालक नहीं था ओशो को पढ़ने की वजह से। हमारे पड़ोस में एक
बड़े विद्वान व्यक्ति रहते थे, संस्कृत के आचार्य थे, मेरे पिता जी के मित्र थे, उन्होंने मुझे सार्वजानिक रूप से अपमानित किया ओशो की किताब हाथ में देख के। मेरे पिता जी का मत भी कोई बहुत अच्छा नहीं था ओशो के विषय में और बहुत सारे लोगों का नहीं था। दिल्ली में शुरुआती दौर में जब पुस्तक मेले लगते थे तो वहां ओशो स्टाल में ओशो के संन्यासी कुछ पुस्तकें रखकर बैठे रहते थे, आज आप पुस्तक मेला जाइए तो हर उम्र के लोगों का सबसे ज्यादा हुजूम जो मिलेगा तो ओशो स्टाल पर मिलेगा!

ओशो
जैसे-जैसे समाज अधिक जागरूक होता जायेगा ओशो उतने ही प्रासंगिक होते चले जायेंगे। ओशो आपके हाथ-पैरों पर भरोसा करके आपको एक बहुत भयावह चुनौतियों से भरे हुए तर्क के सागर में फेंक देते हैं और आपके आसपास तैरते हुए आपको बताते हैं कि आपके पास दो हाथ-पैर हैं, मूर्ख … इन्हें चलाते क्यों नहीं? मेरी तरफ क्या देख रहे हो? सामने की तरफ देखो, इन हाथों से पतवार बनाओ और काटो इस धारा को और तैरकर पहुंचो उस पार!

भारत का बद्धिजीवी ओशो को खूब पढ़ता है, सुनता है फिर भी ओशो संदेश को लेकर समाज में जागरूकता लिए कुछ भी करता दिखाई नहीं देता?

वो छद्म है, मैं तो ऐसे कई धर्माचार्यों को जानता हूँ जो शुद्ध ओशो बोलते हैं लेकिन ओशो ने एक बात कही थी कि मेरा संन्यासी या मुझसे मिला हुआ व्यक्ति कंठी-ताबीज-माला से ना पहचाना जाये, वो अपनी वेशभूषा से ना पहचाना जाए, वो अपने आचरण से, अपनी उपस्थिति से, अपने अस्तित्व से पहचाना जाये… तो मैं तो ओशो का संन्यासी भी नहीं रहा, मैंने उनसे दीक्षा भी नहीं ली, मैं उनके शरीर में रहते हुए उनसे कभी मिला नहीं, मैंने उनको देखा नहीं, मैंने उनकी आवाज़ सुनी है, मैंने उनको स्क्रीन पर देखा है या उनको पढ़ा है। मैंने दुनिया के 22-23 मुल्कों में कविता-पाठ किया, हजारों
रात मैंने कार्यक्रम किये और मेरे पास ऐसे सैकड़ों प्रसंग है जब लोगों ने एकांत में, भीड़ में मुझसे हाथ मिलाते हुए पूछा कि आप ओशो से प्रभावित हैं क्या? मतलब कि आपको उन्होंने कहीं भी छुआ है तो आप उनका नाम ले कि न ले वे तो स्पष्ट झलक हो जायेंगे।

लेकिन ये जो भारतीय मनीषा की हिप्पोक्रेसी है, उनका जो हिप्पोक्रेटिकल बिहेविअर है, उनको लगता है कि वे ओशो के स्वीकार की बात कहेंगे तो वे छोटे हो जायेंगे, जबकि उन्होंने ओशो के माध्यम से ज़रथुस्त्र पढ़ा, लाओत्से पढ़ा, ओशो के माध्यम से वे कंफूशियस को जाने… मैं हिंदी के ऐसे आचार्यों को जानता हूँ जो पलट को, दाद को, रैदास को ओशो के माध्यम से जाने लेकिन आज वे ये मानने को राज़ी नहीं हैं…

जैसे मैंने जब मीरा पढ़ाई विश्वविद्यालय में तो पहले जो एक-दो साल मैंने वो मीरा पढ़ाई जो मैंने आचार्यों और विश्वविद्यालय से सीखी, फिर अगले वर्ष मझे मीरा पर ओशो प्रवचन मिल गये और आगे जो मीरा मैंने पढ़ाई वो बिलकुल अलग मीरा थी और मुझे ये मानने में कोई गुरेज़ नहीं है कि मीरा को उस तरह से देखने की दृष्टि ओशो ने मेरे भीतर विकसित की। मैं टीवी पर कई धर्माचार्यों को सुनकर तुरंत भांप लेता हूं कि ये किताब पढ़कर आये हैं।

ओशो कट्टरता को मानवता के लिए खतरनाक बताते रहे लेकिन पिछले कुछ सालों से कट्टरता खूब बढ़ रही है।

उसके कारण अपढ़ और कुपढ़ लोग हैं। दो तरह के लोग हैं एक तो तथाकथित धार्मिक लोग हैं जो अनपढ़ है जिन्होंने धर्म पढ़ा ही नहीं है क्योंकि जब भी कोई कहता है कि मैं कट्टर हिन्दू हूं या मैं कट्टर मुसलमान हूं तो मुझे ये लगता है कि ना ये हिन्दू है और ना ये मुसलमान है क्योंकि अगर इसने सनातन धर्म की व्याख्याएं पढ़ी हैं, अगर इसने उपनिषद पढ़े हैं, अगर इसने गीता पढ़ी है तो ये कट्टर तो हो ही नहीं सकता, जब भगवान स्वयं कह रहे है कि जिस प्रकार सारी नदियों का जल मिलकर अंत में सागर में पहुंचता है, उसी प्रकार विभिन्न प्रकार की आस्थाएं अंततः मुझमें ही पहुंचती हैं, यहीं वो मुक्ति दे रहे हैं यहीं वो आपको किसी भी आस्था में चले जाने के लिए छोड़ रहे हैं कि जाओ तुम्हारा जहाँ मन करे वहीं चले जाओ।

जब कुरआन शरीफ में मोहम्मद साहब ये कहते हैं जो खुदा ने ऊपर से उन्हें कहने के लिए कहा है कि तू मेरे लिए रास्ता छोड़, मैं तेरे लिए रास्ता छोड़ू, यही दीन है तो वे उस मुसलमान को, इस्लाम में आस्था रखने वाले को निर्मुक्त कर रहे हैं सारे भेदों से, सारे दंगों से, सारी लड़ाईयों से, सारे तथाकथित जेहादों से। लेकिन ये वो जाहिल हैं जिन्होंने ना कभी क़ुरआन शरीफ पढ़ी है और ना गीता पढ़ी है, इसीलिए ये कट्टरता बढ़ी है। ओशो चूँकि तत्त्वदर्शी हैं इसलिए वे इस कट्टरता के विरोध में हैं और इसीलिए वे हर धर्म के कट्टरपंथी लोगों के निशाने पर रहे हैं।

ओशो राजनीति को सबसे निम्नतम बात बताते रहे, वे कहते रहे कि अखबार के अंतिम पृष्ठ पर राजनेताओं की खबर आनी चाहिए – क्या यह ऐसा ही होना चाहिए?

मेरे ख्याल से ये ओशो की सही व्याख्या नहीं है, उन्होंने समकालीन राजनीति पर टिप्पणी की, वे आपातकाल के समय और उस समय की उथल-पुथल, राजनैतिक विद्रूपताओं से बहुत आहत थे, उन्हें लगता था कि भारतीय चिंतन और भारतीय जन आवेग का शोषण कुछ चेहरों ने कर लिया है, वे रोनाल्ड क्रोगन की आत्ममुग्धता से बहुत नाराज़ थे क्योंकि वे खुद आत्ममुग्ध नहीं हैं, वे ज्ञान से लबरेज़ हैं लेकिन आत्ममुग्ध बिलकुल नहीं हैं, अपने विषय में उन्हें कोई भ्रांति नहीं है इसलिए उन्होंने कभी राजनीति की निंदा नहीं की, राजनीति के मानकों के वे विपरीत रहे और वे ऐसा मानते हैं कि राजनीति किसी अखबार के चौथे पन्ने का विषय नहीं है, वो एक युगधर्म है, युगबोध है और इसलिए मैं उनका विचार स्वीकार करता हूँ।

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